गेहूँ रबी की एक प्रमुख फसल है। श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले राज्य के प्रमुख गेहूँ उत्पादक क्षेत्र है। इन जिलों में लगभग चार लाख हेक्टेयर भूमि में यह फसल ली जाती है।
डी.पी.डब्ल्यू - 621-50 (पी.बी.डब्ल्यू. 621 एवं डी.बी.डब्ल्यू. 50) वर्ष 2011 में अधिसूचित यह किस्म उत्तर पश्चिमी भारत में सिंचित क्षेत्रों में समय पर बिजाई हेतु विकसित की गई है। इसके पौधों की सामान्य ऊंचाई 95 से 99 सेमी होती है। यह किस्म सभी प्रकार की रोलियों के प्रति प्रतिरोधकता रखती है| इस किस्म में 95 से 106 दिनों में बालियां आ जाती है । इसके हजार दानों का वजन 36 से 40 ग्राम होता है। इसकी औसत पैदावार 52.00 क्विंटल प्रति हैक्टयर है परन्तु अनुकूलपरिस्थितियों व अच्छे प्रबन्धन से यह किस्म 67.80 क्विंटल तक उपज दे सकती है।
डबल्यूएच. - 1105 वर्ष 2013 में अधिसूचित यह किस्म एस. 87230 x मिलन x बी.ए.बी.ए.एक्स, के मध्य संकरण से चौधरी चरण सिंह, हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार के वैज्ञानिकों द्वारा उत्तर पश्चिमी भारत में सिंचित क्षेत्रों में समय पर बिजाई हेतु विकसित की गई है। पौधों की ऊंचाई लगभग 100 सेमी होती है। यह किस्म रोलियों एवं स्मट के प्रति उच्च स्तर की प्रतिरोधकता रखती है। तीन चौथाई पौधों में 90 दिनों में बालियां निकल आती है तथा पकने में कुल 142 दिन लेती है। इस किस्म के हजार दानों का वजन 41 ग्राम होता है। इसकी औसत पैदावार 52.50 क्विंटल प्रति हैकटैर है परन्तु अनुकूल परिस्थितियों व अच्छे प्रबन्धन से यह किस्म 71.60 क्विंटल तक उपज दे सकती है।
एचडी - 3086 (पूसा गौत्तमी) वर्ष 2014 में अधिसूचित यह किस्म डी.बी.डब्ल्यू 14 x एच.डी.2733 x एच-.यूडब्ल्यू. 468 के मध्य संकरण से भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के वैज्ञानिकों द्वारा उत्तर पश्चिमी भारत में सिंचित क्षेत्रों में समय पर बिजाई हेतु विकसित की गई है। पौधों की ऊंचाई मध्यम लगभग 93 सेमी होती है। यह किस्म रोलियों एवं स्मट के प्रति उच्च स्तर की प्रतिरोधकता रखती है। यह किस्म लगभग 143 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसत पैदावार 54.56 क्विंटल प्रति हैक्टयर है परन्तु अनुकूलपरिस्थितियों व अच्छे प्रबन्धन से यह किस्म 71.0 क्विंटल तक उपज दे सकती है। पी.बी.डबल्यू.-343 यह एक द्विजीनी बौनी किस्म है, जो कि तीनों प्रकार की रोलियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखती है | इसके पौधों के कल्ले काफी संख्या में फूटते हैं। यह सामान्य समय पर बोई जाने वाली व सामान्य समय से कुछ देरी से पककर तैयार होने वाली किस्म है| इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 90-110 सेमी होती है। यह किस्म 140-145 दिन में पककर तैयार होती है| इस किस्म को अधिक उर्वरता वाले सिंचित क्षेत्रों में बुआई कर अधिक पैदावार ली जा सकती है | इसकी औसत पैदावार 50-55 क्विंटल प्रति हैक्टर तक होती है। एच.डी.2329 यह द्विजीन बौनी किस्म है, इसके पौधों में कल्ले काफी संख्या में व एक समान फूटते हैं। यह सामान्य समय पर बोई जाने वाली व सामान्य समय से कूछ पहले पककर तैयार होने वाली रोली रोधक किस्म है। इसके दाने मध्यम, मोटे व सख्त होते हैं एवं इसकी औसत उपज 45-50 क्विंटल प्रति हैक्टर है।पी.बी. डब्ल्यू 502 वर्ष 2004 में अधिसूचित यह किस्म डब्ल्यू 485, पी.बी.डब्ल्यू 343 एवं राज 1482 के मध्य संकरण से पंजाब कृषि विश्व विद्यालय, लुधियाना के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई है। इस किस्म के दाने शरबती सुनहरी आभा वाले सख्त होते हैं इसके हजार दानों का वजन 40 ग्राम तक होता है इसके पौधों की ऊंचाई 80 से 94 सेमी. होती है| जो 128 से 139 दिन में पककर तैयार हो जाती है । इस किस्म की औसत पैदावार 46 से 60 क्विं/ हैक्टर तक ली जा सकती है।
डी.बी.डब्ल्यू. - 90
वर्ष 2014 में अधिसूचित यह किस्म एच.यूडब्ल्यू 468 x ६ डब्ल्यूएच. 730 के मध्य संकरण से भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल के वैज्ञानिकों द्वारा उत्तर पश्चिमी भारत में सिंचित क्षेत्रों में पछिती बिजाई हेतु विकसित की गई है। पौधों की ऊंचाई 76 से 105 सेमी तक होती है। यह किस्म रोलियों एवं स्मट के प्रति प्रतिरोधकता रखती है। इसकी औसत पैदावार 42.70 क्विंटल प्रति हैक्टयर है परन्तु अनुकूल परिस्थितियों व अच्छे प्रबन्धन से यह किस्म 66.60 क्विंटल तक उपज दे सकती है।
राज-3777
कृषि अनुसंधान केन्द्र, श्रीगंगानगर व दुर्गापुरा के संयुक्त प्रयासों द्वारा विकसित गेहूं की यह किस्म राजस्थान राज्य के लिए वर्ष 2002 में जारी की गई है। यह किस्म राज. 3160 एवं एच.डी. 2449 के मध्य संकरण द्वारा विकसित की गई है | यह किस्म बहुत देर से बुवाई की परिस्थितियों के अनूकुल पाई गई है। किसान इस किस्म की बुवाई 15 जनवरी तक भी कर सकते हैं। यह किस्म सभी प्रकार की रोलियों के प्रति प्रतिरोधकता रखती है। 105 से 110 दिनों में पककर तैयार हो जाने
वाली इस किस्म से औसतन 25-30 क्विंटल प्रति हैक्टर की उपज प्राप्त की जा सकती है।
राज-3765
यह एक द्विजीन बौनी किस्म है, जो पछेती बुवाई के लिए उपयुक्त है| यह किस्म तीनों प्रकार रोलियों (रस्ट) के विरूद्ध अच्छी प्रतिरोधक क्षमता रखती है। इस किस्म के पौधे की ऊंचाई 90-96 से.मी. होती है। यह किस्म 117 से 122 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी बालियां पकने पर सफेदी लिये होती है। इस किस्म के दाने सुनहरी आभायुकत मोटे होते हैं। इस किस्म की औसत उपज अन्य प्रचलित किस्मों जैसे सोनालिका, पी.बी.डब्ल्यू. 226, एच.डी. 2285, राज 3077 व यू पी. 2338 से अधिक पाई गई है| इस किस्म की उपज 45 से 50 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है।
पी.बी.डच्ल्यू-373
यह किस्म पछेती बुवाई के लिए उपयुक्त है तथा तीनों रोलियों के प्रति रोधक क्षमता रखती है । इसकी औसत पैदावार 40-45 क्विंटल प्रति हैक्टर तक होती है।
खेत का चुनाव
सिंचाई के साथ गेहूं की खेती सामान्यतः सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है, किन्तु अच्छी पैदावार के लिये बलुई दोमट से चिकनी दोमट, समतल एवं उत्तम जल निकास वाली भूमि उपयुक्त है।
खेत की तैयारी
(1) पड़त खेत:- हल्की मध्यम मिट्टी के खेत में गर्मी की जुताई न करें और वर्षा में दो-तीन जुताई देकर सुहागा लगाकर खेत रोणी के लिये तैयार कर दें | पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी करें | नाली क्षेत्र में गर्मी की जुताई लाभदायक है।
(2) दो फसली खेत:- खरीफ की फसल काटने के बाद एक या दो बार आवश्यकतानुसार जुताई करें और सुहागा लगाकर खेत रोणी के लिये तैयार करें | पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें।
रोणी (पलेवा) बुवाई :
गेहूँ की फसल के लिए रोणी 10 से.मी गहरी करें। बत्तर आने पर दो जुताई कर सुहागा लगाकर खेत तैयार करें।
भूमि उपचार/बीज उपचार
1. गेहूँ के खेत में दीमक की रोकथाम के लिये नीचे लिखे उपाय काम में लायें।
(अ) दीमक प्रभावित क्षेत्र में 400 मि.ली. क्लोरीपायरीफास (20 ई.सी.) या 200 मि.ली. इमिडाक्लोप्रिड ((17.8 एस.एल.) या 250 मि.ली. इमिडाक्लोप्रिड (600 एफ.एस.) को 5 लीटर पानी में घोलकर 100 किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें | बीज को रात भर पतली परत में सूखने के लिये रखें एवं दूसरे दिन सुबह बुवाई के काम में लायें।
(ब) जिन खेतों में दीमक का प्रकोप अधिक हो, उनमें बुवाई के समय क्यूनालफॉस (1.5 प्रतिशत) चूर्ण 6 किलो प्रति बीघा के हिसाब से भूमि में अन्तिम जुताई के समय मिलायें।
2. जहां स्मट (काग्या) का प्रकोप सम्भावित हो, वहाँ बुवाई के समय बीज को कारबोक्सीन (70 डब्ल्यू. पी.) अथवा कारबन्डेजिम (50 डब्ल्यू.पी.) नामक दवा से 2 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें | उपरोक्त दवा उपलब्ध न होने पर ऐग्रोसन जी.एन. अथवा मेन्कोजेब (75 डब्ल्यू पी.) 2 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से भी उपचारित किया जा सकता है। इन बीजोपचार से अंकुरण क्षमता भी बढ़ती है।
3. गेहूँ में करनाल बंट रोग की रोकथाम हेतु कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत + थाइराम 37.5 प्रतिशत (75 प्रतिशत डब्ल्यू एस.) से 2 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से बीजोपचार करें।
4.ईयर कोकल व दुण्डू रोग से बचाव के लिये बीज को (यदि बीज रोग ग्रसित खेत का हो तो) 20 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोकर नीचे बचे स्वस्थ बीज को अलग छांट कर साफ पानी से धोयें और सुखाकर बोने के काम में लावें | जिन खेतों में इस रोग का प्रकोप हो उनमें अगले कुछ वर्षों में गेहूं नहीं बोया जाये।
5. गेहूं में पद गलन या जड़ गलन प्रभावित क्षेत्रों में रोग की रोकथाम के लिए बीज को कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत + थांयरम 37.5 प्रतिशत (75 डब्ल्यु पी) की दो ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करें।
6. एजोटोबेक्टर एवं पी.एस.बी. कल्चर (फास्फोरस घोलक जीवाणु) पाउडर के तीन पैकेट एक हैक्टेयर क्षेत्र के बीज को बुवाई से एक घण्टे पूर्व उपचारित कर बोने पर नत्रजन एवं फास्फोरस उर्वरकों की बचत की जा सकती है।
बुवाई का समय
(1.) समय पर बुवाई - बुवाई 5 नवम्बर से 25 नवम्बर तक करें | सबसे उपयुक्त समय 10 नवम्बर से 20 नवम्बर तक है।
(2) पिछेती बुवाई - बुवाई 25 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक करें | सबसे उपयुक्त समय 25 नवम्बर से 7 दिसम्बर तक है।
बीज की मात्रा
(1) समय पर बिजाई:- 25 किलो प्रमाणित बीज प्रति बीघा डालें |
(2) पिछेती बुवाई:- 35 किलो प्रति बीघा डाले
बुवाई की विधि
(1) समय पर बुवाई: बुवाई 20 से 23 सेमी की दूरी पर कतारों में करें। सै 5 से.मी. से अधिक गहरी न करें।
(2) पिछेती बुवाई: पिछेती बोई जाने वाली किसमें 18-20 से.मी. की दूरी पर बोयें और बुवाई 3-4 से.मी. से अधिक गहरी न करें।
(3) बुवाई के समय पर्याप्त नमी होना आवश्यक है| यदि कतार से कतार की दूरी 18 से.मी. रखी जाये तो पैदावार में वृद्धि होती है।
(4) यदि पिछेती गेहूँ की बुवाई दिसम्बर के आखिर या जनवरी के प्रथम सप्ताह में करनी पड़े तो कतार से कतार की दूरी 15 से.मी. रखें।
खाद का प्रयोग/उर्वरक
खाद का प्रयोग: भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि के लिए फसल-चक्र में गोबर की सड़ी हुई खाद का प्रयोग करें | अगर लगातार चार वर्षों तक फसल चक्र में 35 क्विंटल गोबर की खाद का प्रति बीघा के हिसाब से प्रयोग किया जाता है तो आगे के वर्षों में गोबर की खाद की उपरोक्त मात्रा के साथ उर्वरकों की आधी मात्रा ही पर्याप्त रहती है।
उर्वरक :बुवाई के समय 25 किलो यूरिया+22 किलो डी.ए.पी.10 किलो एम.ओ.पी. प्रति बीघा
प्रथम सिंचाई के समय : 30 किलो यूरिया प्रति बीघा। अगर भूमि रेतीली है तो यूरिया की आधी मात्रा प्रथम सिंचाई व शेष मात्रा दूसरी सिंचाई पर देवें।
उर्वरक डालने का समय एवं विधि:
(1) भारी व मध्यम मिट्टी के खेतों में नत्रजन की आधी मात्रा और फास्फेट की पूरी मात्रा बुवाई के पहले आखिरी जुताई के समय पोरे से ड्रिल करें। नत्रजन की शेष आधी मात्रा को प्रथम या द्वितीय सिंचाई हे समय टॉप ड्रेसिंग विधि से देवें।
(2) हल्की मिट्टी के खेत में भी नत्रजन की आधी मात्रा और फास्फेट की पूरी मात्रा बुवाई के पहले अन्तिम जुताई के समय पोरे से ड्रिल करें| नत्रजन की शेष मात्रा को प्रथम व द्वितीय सिंचाई के समय टॉप ड्रेसिंग विधि से देवें।
(3) मोटे कणों की संरचना वाली रेतीली भूमि में नत्रजन का 1/3 भाग बुवाई के समय, 1/3 भाग प्रथम सिंचाई के बाद तथा 1/3 भाग दूसरी सिंचाई के तुरन्त बाद दें ।
(4) देर से बोई गई फसल में नत्रजन दो बार ही देवें | नत्रजन की आधी मात्रा बोने से पूर्व एवं शेष आधी मात्रा पहली सिंचाई करने पर देवें।
(5) गेहूँ की फसल में संस्तुत नत्रजन की मात्रा में नीम लेपित यूरिया के प्रयोग में 80 किलो प्रति हैक्टेयर की मात्रा को उपयोग में लिया जा सकता है।
(6) मिट्टी परीक्षण की सिफारिशों के आधार पर पोटाशयुक्त उर्वरक का प्रयोग करें।
खरपतवार नियंत्रण एवं निराई गुडाई
1. प्रथम सिंचाई के बाद या उन्नत हेन्ड हो' से एक बार गुड़ाई करें | यदि आवश्यक हो तो दूसरी सिंचाई के बाद भी निराई-गुड़ाई करें |
2. केवल सिफारिश की गई किस्मों में खरपतवार नियंत्रण हेतु 2,4-डी 62 ग्राम
+आईसोप्रोटयूरॉन 125 ग्राम प्रति बीघा, 150-200 लीटर पानी में घोलकर लैट फेन नोजल प्रयोग करते हुए छिड़काव करें।
छिड़काव का समय
उपर्युक्त रसायनों में से किसी एक खरपतवारनाशी का चयन करते हुए प्रति हैक्टेयर 500 से 700 लीटर पानी में घोल बनाकर फ्लैट फैन नोजल का प्रयोग करते हुए सामान्य समय(अक्टूबर-नवम्बर माह) पर बोई गई फसल में बुवाई के 30-35 दिन बाद और पिछेती (दिसम्बर माह) बोई गई फसल में बुवाई के 45-55 दिन बाद छिड़काव करें | यदि छिड़काव इस अवधि के पूर्व अथवा पश्चात् किया जाता है तो फसल को क्षति पहुंचती है, जो बाद में विकृत बालियों के रूप में प्रकट होती है।
सिंचाई
गेहूँ की मिट्टी की किस्म के अनुसार 5-6 सिंचाईयां आवश्यक है| अगर चार सिंचाईयों से कम पानी उपलब्ध हो तो बौने गेहूँ की खेती के बजाय सरसों की खेती की जावे। 6 सिंचाई उपलब्ध होने पर पानी निम्न प्रकार लगाया जावे।
(1) प्रथम सिंचाई फसल बोने के 25-30 दिन बाद (जड़ जमने पर)
(2) दूसरी सिंचाई प्रथम सिंचाई के 25-30 दिन बाद (फूटान के समय)
(3) तीसरी सिंचाई दूसरी सिंचाई के 25-30 दिन बाद (गांठ बनने पर)
(4) चौथी सिंचाई तीसरी सिंचाई के 15-20 दिन बाद (बाली आने पर)
(5) पांचवी सिंचाई चौथी सिंचाई के 15-20 दिन बाद (दूधिया अवस्था पर)
(6) छठी सिंचाई पांचवी सिंचाई के 15-20 दिन बाद (लेट डफ स्टेज पर)
आकस्मिक तापमान वृद्धि से बचाव
गेहूं की फसल में बीज भराव व बीज निर्माण की अवस्था पर आकस्मिक ताप वृद्धि से फसल में बचाव के लिए सीलिसीक अम्ल (150 पी.पी.एम. या 15 ग्राम /100 लीटर पानी) के विलयन'अथवा सीलिसीक अम्ल (100 पी.पी.एम. या 10 ग्राम,“ 100 लीटर पानी + 250 पी.पी.एम. या 25 ग्राम, 100 लीटर पानी) का पर्णीय छिड़काव क्रमशः प्रथम झण्डा पत्ती अवस्था व द्वितीय बीज की दूधीय अवस्था पर करने से लाभ प्राप्त होता है।
पौध संरक्षण
(1) दीमक प्रकोप: खड़ी फसल में दीमक के अत्यधिक प्रकोप वाले खेतों में इसकी रोकथाम के लिए क्लोरोपायरिफास (20 ई.सी.) । लीटर या इमिडाक्लोप्रिड (17.8 एस.एल.) का 125 मि.ली. प्रति बीघा सिंचाई पानी के साथ दें | यदि दीमक का सामान्य प्रकोप, विशेषकर मार्च माह में हो तो आधा लीटर प्रति बीघा की दर से उक्त कीटनाशी का प्रयोग करने पर रोकथाम की जा सकती है।
(2) चेपा कीट: गेहूं की फसल में चेपा का प्रकोप होने एर मिथाईल डेमेटॉन (25 ई.सी.) का 250 मिली या थायोमिथोक्साम (25 डब्ल्यू-जी.) 50 ग्राम प्रति बीघा की दर से छिड़काव करें|
(3) पीली रोली रोग : इस रोग में पत्तियों पर पीले (हल्दीया) रंग का पाउडर रेखीय धारियों के रूप में दिखाई देता है । रोग के लक्षण दिखाई देते ही फसल पर प्रोपीकोनाजोल 25 ईसी या टेबूकोनाजोल 25.9 ईसी का मिली प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार 15 दिन के अन्तराल पर दूसरा छिड़काव करें।