सरसों का तिलहन फसल के रूप में महत्वपूर्ण स्थान है। सरसों की बुवाई राजस्थान में रबी (शरद ऋतु) के मौसम में की जाती है । इसकी बुवाई सिंचित व असिंचित दोनों अवस्थाओं तथा कमजोर व रेतीली भूमि में भी सफलता पूर्वक कर सकते है। सरसों उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीकी निम्न प्रकार है।
आर:एच. 0749 : यह किस्म वर्ष 2013 में विकसित की गई है जो दिल्ली, हरियाणा, जम्मू एण्ड कश्मीर, पंजाब व राजस्थान के लिए उपयुक्त पायी गई है | इस किस्म के पकने की अवधि 150 से 156 दिन हैं तथा इस किस्म में फलियों के पकने पर दाने नहीं झड़ते हैं एवं दाना मोटे आकार का काले रंग का होता है| इसकी उपज 24 से 28 क्विंटल प्रति हैक्टर एवं तेल की मात्रा 39 से 40 प्रतिशत होती है | इसके पौधे की लम्बाई 205 से 248 सेन्टीमीटर होती है। यह सफेद रतुआ रोग एवं मृदुरोमिल आसिता रोग की प्रतिरोधी किस्म हैं । यह किस्म आल्टरनेरिया पर्णचित्ती एवं चूर्णिल रोग के प्रति सहनशील पाई गई है।
आर.जी.एन. 73 : यह किस्म राजस्थान, उतर प्रदेश, उतरांचल एवं मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त पायी गई है। इस किस्म के पकने की अवधि 120 से 151 दिन हैं । तथा इस किस्म में फलियों के पकने पर दाने नहीं झड़ते हैं| एवं दाना मध्य आकार का कालापन लिए भूरे रंग का होता है। इसकी उपज 17 से 22 क्विंटल प्रति हैक्टर, एवं तेल की मात्रा 34 से 44 प्रतिशत होती है। इसकी लम्बाई 161 से 200 से.मी. है एवं आड़ी नहीं गिरती है। यह सफेद रतुआ रोग एवं मृदुरोमिल आसिता रोग के प्रतिरोधी किस्म हैं। तना गलन (स्कलेरोटिनिया गलन) रोग के लिए प्रतिरोधी किरम हैं | यह किस्म आल्टरनेरिया पर्णचित्ती एवं चूर्णिल रोग रोधी पाई गई है।
आर.जी.एन. 13 : कृषि अनुसंधान केन्द श्रीगंगानगर द्वारा विकसित सरसों की यह किस्म वर्ष 2002 में राजस्थान के सिंचित क्षेत्रों के लिए जारी की गई है। यह किस्म आर.एच. 30 एवं वरूणा के संकरण से विकसित की गई है | इस किस्म में अंकुरण के समय अधिक ताप व बाद में पाला केप्रति प्रतिरोधक क्षमता है । यह किस्म कुछ हद तक लवणता के प्रति भी सहनशील है | इसके दानों में तेल की मात्रा लगभग 40 प्रतिशत तक पाई जाती है। इस किस्म के पौधे 210 सेन्टीमीटर तक लम्बे होते हैं। औसतन 149 दिनों में पककर यह किस्म अनुकूल परिस्थितियों में लगभग 20-22 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की उपज देती है। लक्ष्मी (आर.एच. 8812 ) : लम्बे कद वाली इस किस्म का पौधा अधिक शाखाओं वाला व फलियों से लदा हुआ रहता है। इस किस्म की फली की लम्बाई 5 सेमी से अधिक है, जो कि अन्य किस्मों से लम्बी है। 1000 दानों का औसत वजन लगभग 6 ग्राम है। सिंचित अवस्था में इस किस्म की औसत पैदावार 16 से 18 क्विंटल प्रति हैक्टर तक ली जा सकती है। पकने की अवधि 135-145 दिन है | इसमें तेल की मात्रा 37-39 प्रतिशत तक पाई जाती है। पूसा बोल्ड : यह एक मध्यम कद वाली किस्म है, जो इस क्षेत्र के लिये उपयुक्त पाई गई है | इसके एक हजार नों का वजन 6 ग्राम के लगभग होता है, जो अन्य किस्मों से डेढ़ गुणा है। इसकी शाखायें, फलियों से लदी हुई व फलियां मोटी होती है। यह किस्म 130 से 140 दिन में पककर तैयार होती है व औसत उपज 12 से 15 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है | इस किस्म में तेल की मात्रा 37 से 38 प्रतिशत तक पाई जाती है।वरूणा (टी 59) : मध्यम कद वाली ये किस्म इस क्षेत्र के लिये बहुत उपयुक्त है। इस किस्म के पौधों की शाखायें फैली हुई होती है। इसकी फलियाँ चौड़ी व छोटी होती है। इसके दाने मोटे व गहरा बैंगनी रंग लिये होती है। यह किस्म कुछ जल्दी पकने वाली होती है व 130 से 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस क्षेत्र में इसकी औसत उपज 12 से 15 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है | इसमें तेल की मात्रा 36 प्रतिशत तक पाई जाती है।
आर.जी.एन. - 298
कृषि अनुसंधान केन्द्र, श्रीगंगानगर द्वारा आर.जी.एन. 96 व पूसा बोल्ड के संकरण से विकसित सरसों की यह किस्म बारानी क्षेत्रों के लिए वर्ष 2015 में राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली एवं जम्मू के लिए अनुमोदित की गई है। यह कम पानी वाले क्षेत्रों में पलेवा करके बुवाई करने पर अधिक पैदावार देती है। इसकी औसत उत्पादन क्षमता 5 से 6 क्विंटल प्रति बीघा है। यह किस्म पकने में लगभग 143 दिन लेती है तथा पकने पर इसकी फलियां झड़ती नहीं हैं। इसका दाना मोटे आकार का है, जिसके 1000 दानों का वजन 5.4 ग्राम तक पाया गया है। इसमें तेल की मात्रा 40 प्रतिशत तक पाई गई है | यह किस्म सफेद रतुआ रोग, मृदुरोमिल आसिता रोग, तना गलन, अल्टरनेरिया पर्णचित्ती रोग एवं चूर्णिल आसिता रोग के प्रति प्रतिरोधक पाई गई है।
आर.जी.एन.-229 :
कृषि अनुसंधान केन्द्र, श्रीगंगानगर द्वारा विकसित सरसों की यह किस्म बारानी क्षेत्र के लिए वर्ष 2012 में राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली तथा जम्मू के लिए अधिसूचित की गई है| यह कम पानी में प्रचलित बारानी किस्मों से अधिक पैदावार देती है। इसका औसत उत्पादन 5-6 क्विंटल प्रति बीघा है । यह पकने में लगभग 146 दिन लेती है। इसमें हजार दानों का वजन 5.04 से 6.20 ग्राम तक पाया गया है। जो अन्य प्रचलित किस्मों से अधिक है | इसमें तेल की मात्रा 37.8 से 42.1 प्रतिशत पाई गई है। यह किस्म सफेद रतुआ रोग, मृदुरोमिल आसिता रोग, तना गलन, आल्टरनेरिया पर्णचित्ति एवं चूर्णिल रोग के लिए प्रतिरोधी पाई गई है।
आर.जी.एन.-48
राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली तथा जम्मू के बारानी क्षेत्र के लिए उपयोगी यह किस्म
वर्ष 2006 में अधिसूचित की गई है। पाला सहनशील यह किस्म आर.एस.एम. 2004 व बी.-75 के संकरण से प्राप्त की गई है। यह किस्म 138 से 157 दिन में पक कर तैयार होती है तथा 18-20 क्विंटल प्रति हैक्टर तक पैदावार देती है | इसके पौधे की ऊंचाई 160 से 175 सेमी व मध्यम आकार की फलियां होती है, जिसमें 13-16 दाने होते हैं। एक हजार दानों का वजन 4 से 5.2 ग्राम तक होता है। इसमें तेल की मात्रा 39 से 41 प्रतिशत तक होती है। इस किस्म में रोगरोधी क्षमता भी पायी गयी है।
सिंचित क्षेत्र में देरी से बोई जाने वाली किस्में
आर.जी.एन.-236
कृषि अनुसंधान केन्द्र, श्रीगंगानगर द्वारा विकसित सरसों की यह किस्म वर्ष 2012 में राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली तथा जम्मू क्षेत्र के लिए अधिसूचित की गई है। देरी से बुवाई योग्य यह किस्म 25 नवम्बर तक बोई जा सकती है। यह देरी से बोई जाने वाली प्रचलित किस्मों से अधिक पैदावार देती हैं इसका औसत उत्पादन 4-5 क्विंटल प्रति बीघा है। यह किस्म 127 दिन में पक जाती हैं तथा इसके हजार दानों का वजन 3.95 से 4.80 ग्राम तक पाया गया है। इसमें तेल की मात्रा 38.4 से 40.1 प्रतिशत पाई गई है। यह किस्म सफेद रतुआ रोग, मृदुरोमिल आसिता रोग, चूर्णिल रोग, तना गलन एव आल्टरनेरिया पर्णचित्ति के लिए प्रतिरोधी पाई गई है।
आर.जी.एन.145
पिछेती बुवाई, (नवम्बर के अन्तिम सप्ताह से दिसम्बर प्रथम सप्ताह) के लिये उपयुक्त यह किस्म राजस्थान , पंजाब, हरियाणा, दिल्ली तथा जम्मू क्षेत्र के लिए वर्ष 2009 के लिए अधिसूचित की गई है। यह किस्म 120 से 141 दिन में पककर तैयार होती है तथा 14 से 17 क्विंटल प्रति हैक्टर तक पैदावार होती है। इसके पौधो की ऊँचाई 173 से 221 से.मी. व फलियाँ मध्य आकार की होती है जिसमें 17 से 18 दानें होते हैं। एक हजार दानो का वजन 2.60 से 4.60 ग्राम तक होता है| इसमें तेल की मात्रा लगभग 37.5 प्रतिशत तक होती हैं इसकी फलियाँ झडती नही है तथा रोगो के प्रति औसत अवरोधकता भी पाई गई है।
खेत का चुनाव सरसों सभी प्रकार की भूमि में उगाई जाती है | बहुत रेतीली एवं नमी की समस्या वाली भूमि में सरसों के स्थान पर तारामीरा लेना अधिक उपयुक्त है। सरसों की पैदावार के लिये दोमट से चिकनी भूमि उपयुक्त है।
खेत की तैयारी
वर्षा के दिन में दो तीन बार आवश्यकतानुसार खेत की जुताई करते रहें, जिससे खेत में कचरा (खरपतवार) न जमने पाये। पहली जुताई गहरी करें। वर्षा के उपरान्त एक जुताई और देकर सुहागा लगाकर खेत रौणी के लिये तैयार कर दें | गहरी रौणी करने के बाद दो बार जुताई कर पाटा लगाकर खेत बुवाई के लिये तैयार करें।
बीज उपचार
सफेद रोली के बचाव के लिये मैटालेक्सिल (35 एस.डी.) 6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें। पेन्टेड बग की रोकथाम हेतु इमिडाक्लोप्रिड (70 डब्ल्यूएस.) का 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करें। जीवाणु कल्चर से बीजोपचार हेतु प्रति हेक्टेयर संस्तुत बीज की मात्रा को एजोटोबैक्टर व पी. एस. बी. कल्चर प्रत्येक की 100 ग्राम मात्रा से उपचारित करें।
बुवाई का समय सरसों की बुवाई इस क्षेत्र में पूरे अक्टूबर माह तक की जा सकती है | बुवाई का उचित समय 5 से 20 अक्टूबर है। इसके बाद बुवाई करने पर उपज उत्तरोत्तर घटती जाती है। वरूणा व पूसा बोल्ड की बुवाई 10 नवम्बर के बाद करने पर प्राप्त उपज आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद नहीं रहती है। बीज की मात्रा सरसों का 600 से 700 ग्राम प्रमाणित बीज प्रति बीघा प्रयोग करें ।
बुवाई की विधि:बुवाई करते समय कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. व पिछेती में 20 सेमी रखें। बोते समय यह ध्यान रखा जाये कि बीज दो से ढाई से.मी. से गहरा न गिरे | बुवाई के समय खेत में उचित नमी का होना आवश्यक है।
खाद व उर्वरक की मात्रासरसों की अधिक उपज के लिए 18.75 किलोग्राम नत्रजन समय पर बुवाई हेतु व 22.5 किलोग्राम नत्रजन पिछेती बुवाई के लिए एवं दस किलोग्राम फास्फेट प्रति बीघा प्रयोग करें। आधी नत्रजन एवं पूरी फास्फेट की मात्रा बुवाई से पहले खेत में ड्रिल करें। बची नत्रजन की मात्रा पहली सिंचाई के समय दी जाए। मिट्टी परीक्षण के आधार पर पोटाश उर्वरक का प्रयोग करें।
निम्नलिखित मात्रा में उर्वरक काम में लावें :
1. समय पर बुवाई के लिए 20.5 किलोग्राम व पिछेती बुवाई के लिए 25 किलोग्राम यूरिया तथा 62.5 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट प्रति बीघा बुवाई पूर्व पूर्व ड्रिल करें।
2. प्रथम सिंचाई पर समय से बोई गई फसल में 20.5 किलोग्राम व पिछेती फसल में 25 किलोग्राम यूरिया टोप ड्रेस करें।
3. मोटे कणों की संरचना वाली रेतीली भूमि में 30 किलोग्राम नत्रजन प्रति बीघा प्रयोग करें।
खरपतवार नियंत्रण एवं निराई गुडाई
(1.) सिंचाई से पूर्व अथवा बाद में एक या दो निराई-गुड़ाई आवश्यकतानुसार करें।
(2.) सरसों में रासायनिक खरपतवार नियंत्रण हेतु फसल की बुवाई के तुरन्त बाद पेन्डामैथेलिन (38.7 सी.एस.) सक्रिय तत्व 750 मिली प्रति हैक्टर 600 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें अथवा इसी मात्रा को बुवाई से पूर्व पलेवा के बाद अन्तिम जुताई से पहले भी छिड़काव करने पर अच्छी तरह से खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है।
(3.)ओरोबंकी खरपतवार से ग्रसित खेतों में सरसों की बुवाई न कर अन्य फसलें चना, जौ आदि बोये। ओरोबंकी के जैविक नियंत्रण हेतु इसके उगते ही 40 -१2 दिन में 2 बूंद सोयाबीन तेल खरपतवार की प्रत्येक शाखा पर डालें। ओरोबंकी खरपतवार के रासायनिक नियंत्रण हेतु प्रथम सिंचाई पश्चात खरपतवारनाशी ग्लायफोसेट की स्प्रे खरपतवार पर 0.25 प्रतिशत विलयन (25 मिली ,/ लीटर पानी) की दर से स्प्रेयर पर सुरक्षा हुड लगाते हुए इस तरह करें की फसल पर रसायन न गिरे।
पौधों की छंटाई
जहां पर फसल घनी हो वहां पौधों की छंटाई करना आवश्यक है | पौधों की दूरी 15 से.मी. रखी जावे | छंटाई का कार्य प्रथम सिंचाई पूर्व करना अधिक उचित होता है।
सिंचाई (बुवाई के बाद निम्न समय पर सिंचाई करें )
(1) पहली सिंचाई बुवाई के 35 से 40 दिन बाद (बढ़वार के समय)
(2) दूसरी सिंचाई प्रथम सिंचाई के 35 से 40 दिन बाद (फूल आने के समय)
(3) तीसरी सिंचाई दूसरी सिंचाई के 30 से 35 दिन बाद (फलियां बनने की शुरूआत पर)
नोट: यदि दो सिंचाईयाँ ही उपलब्ध हो तो प्रथम सिंचाई बुवाई के 10 से 15 दिन बाद एवं दूसरी सिंचाई 90 से 100 दिन बाद की जाये | सरसों की फसल में फव्वारा विधि से 2 सिंचाईयाँ बुवाई के 40 व 90 दिन बाद दे | प्रत्येक चाई में पानी की गहराई 6 से.मी. रखें।
पाले से बचाव
जब न्यूनतम तापक्रम 4.0 डिग्री सैल्सियस तक पहुंच जाए व उत्तर दिशा से ठंडी हवा चल रही हो और आसमान साफ हो तो सरसों की फसल को पाले से नुकसान की आंशका हो जाती है। अतः उन दिनों दोपहर के समय जब पतियाँ सूखी हो तो 1 एम.एल. गंधक का तेजाब या डाईमिथाइल सल्फोऑक्साइड प्रति लीटर पानी में घोल के हिसाब से विलयन बनाकर प्रति बीघा 100-125 लीटर विलयन का छिड़काव पाले से बचाव के लिए फसल पर करें।
सरसों में पाले से बचाव के वैकल्पिक उपाय
(1) पाला पड़ने की सम्भावना होने पर किसान खेत में सिंचाई कर देवें।
(2) खेत की उत्तर-पश्चिमी दिशा में वायुरोधक वृक्ष लगाने से फसल को ठण्डी हवाओं से बचाया जा सकता है।
सूखा प्रबन्धन
सरसों की फसल को पकाव के समय सूखे के प्रकोप से बचाने हेतु 100 लीटर पानी में 1 किलो पोटेशियम नाईट्रेट का घोल बनाकर फसल की फूल वाली अवस्था एवं फली वाली अवस्था पर एक-एक छिड़काव करें|